सोमवार, 27 अगस्त 2012

पोला

छग राज्य में पर्वों और त्यौहारों की कमी नहीं। सभी पर्व और त्यौहार यहां के लोक जीवन की कहानी कहते हैं। यहां लोक जीवन का आराध्य श्रम है। श्रम से सरोबार कृषि कर्म की अलग ही पहचान है। यह पहचान यहां के लोक पर्वों में सन्निहित है। चाहे वह हरेली हो या गोवर्धन पूजा, छेर-छेरा हो या पोला। सबमें कृषि संस्कृति के तत्व ही विद्यमान है।
पोला पर्व भादो मास की अमावस्या को मनाया जाता है। विभिन्न अंचलों में इसे पोला पाटन व कुशोत्पाटनी आदि नाम से भी जाना जाता है। पोला भी हरेली की ही तरह कृषि कर्म से प्रेरित लोकपर्व है जिस प्रकार हरेली में कृषि औजारों की पूजा प्रतिष्ठा कर लोक अपने व अपने पशु धन के लिए स्वास्थ्य की मंगल कामना करता है। ठीक उसी प्रकार पोला भी धन-धान्य, लक्ष्मी व कृषि कर्म के सहयोगी बैलों की पूजा से संबंधित है। इस समय खेतों में अंतिम निंदाई लगभग पूरी हो जाती है। खेतों में धान के पौधे लहलहाते हैं। ये पौधे किशोरावस्था को पार कर परिपक्व होने की स्थिति में होते हैं। फसल को लोकभाषा में लक्ष्मी कहा जाता है। यह अन्नपूर्णा भी कहलाती है। लक्ष्मी का आशय समृद्धि भी है। लक्ष्मी अर्थात् अन्नपूर्णा का बालपन बेटी और प्रौढ़पन मां के रूप में पूजित होता है। धान्य लक्ष्मी जब तक खेतों में है वह बेटी है। खेत से खलिहानों और खलिहान से कोठी में आकर मां की प्रतिष्ठा पाती है। लोक का यह मर्म वे ही जान सकते हैं, जिन्होंने लोक जीवन का संसर्ग प्राप्त किया हो।

ऐसी लोक मान्यता है कि पोला के दिन धान की फसल 'गभोट' में आती है अर्थात् गर्भ धारण करती है। इसलिए लोक मर्यादा के अनुरूप इस दिन खेत जाना वर्जित है। इसके पीछे कारण जो भी हो लेकिन लोक की यही मान्यता है। लोक में मर्यादा पालन की परम्परा केवल मनुष्य के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी व पेड़-पौघों के लिए भी है। शायद यह वर्जना इसी भावना से प्रेरित हो। इसका दूसरा आशय यह भी कि इस दिन कृषक परिवार द्वारा अपनी बेटी धान्य लक्ष्मी के गर्भवती होने की स्थिति में विशेष व्यंजन बनाकर सधौरी का भोग लगाया जाता है, क्योंकि यहां पुत्री के गर्भवती होने पर सधौरी खिलाने की परम्परा है। अन्न भी तो बेटी ही है जो खेतों में है और गर्भवती है। पोला के परिदृश्य में लोक की यही भावना है। पोला मनाकर लोग शायद अपनी भावना को इन शब्दों में अभिव्यक्त करता है- 'हे माता फसल गर्भ से परिपूर्ण, अन्न ऊर्जावान, शक्तिदायक, गुणकारी, स्वादिष्ट और समृद्धिदायक हो। अन्न का विपुल उत्पादन हो।'
पोला के दिन छग में नंदी अर्थात् नांदिया पूजा की परम्परा है। नंदी शिव का वाहन है। छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण लोकजीवन 'शिव' से परिपूर्ण है। आदिकाल से शिव अर्थात् शंकर भगवान यहां बडे देव, बूढ़ादेव पूजा की परम्परा है। नंदी शिव का वाहन है। छग का सम्पूर्ण लोक जीवन 'शिव' से परिपूर्ण है। आदिकाल से शिव अर्थात् शंकर भगवान यहां बडेदेव, बूढ़ादेव, दूल्हादेव आदि के रूप में लोक पूजित है। यहां के प्राचीन मंदिरों में ही नहीं बल्कि प्रत्येक गांव व टोले मुहल्लों में शिव मंदिरों की अधिकता है। अर्थात् शिव ही सर्वाधिक लोक पूज्य देव हैं। देव नहीं भोलेबाबा है। ठीक 'लोक' की तरह भोले-भाले, सीधे-सरल, निष्कपट और निष्छल। जिसका आराध्य निष्छल होगा वह अराधक भी निष्छल होगा। इसे छग का लोक जीवन प्रमाणित करता है। जहां शिव है वहां नंदी है और जहां नंदी है वहां शिव है। नंदी आत्मा है, शिव परमात्मा है। इसीलिए शिवमंदिरों में नंदी (आत्मा) शिव (परमात्मा) से प्रत्यक्षीकरण के लिए ध्यानमुद्रा में अवस्थित है। यह शास्त्र का अपना अध्यात्म व दर्शन हो सकता है। पर लोक इससे भिन्न नहीं है। उसका यह जुड़ाव उससे भी अधिक गहरा और एकनिष्ठ है। इस तथ्य को यह लोकपर्व प्रमाणित करता है।
नांदिया बैल ही है, किन्तु पूजित की श्रेणी में है। बैल भी पूज्य है और वह अपने परिश्रम के आधार पर कृषि कार्य का आधार स्तंभ है। वैज्ञानिक प्रणाली को छोड़ दें तो बैल के बिना कृषि संबंधित कार्य संभव ही नहीं। इसीलिए पोला के दिन नंदी या नांदिया के रूप में कृषक अपने बैलों की ही पूजा करता है। कुम्हार के हाथों बने मिट्टी के नांदिया बैल के प्रति उपजी लोक की आस्था और उसके विश्वास के पीछे बैल का कृषि कार्य में सहायक होना ही प्रमुख है। छग में 'गोल्लर' ढीलने की परम्परा है। मृत व्यक्ति की स्मृति में या अन्य विशेष अवसरों पर संपन्न परिवार द्वारा 'गोल्लर' (सांड़) छोड़ा जाता है। तब किशोर बछडे क़ो विधिविधान से उसके कमर (पुट्ठे) पर गर्म हंसिया से त्रिशूल की आकृति दागकर व उसके डील (गर्दन व पीठ के मध्य का भाग) को 'काठा' से नापकर छोड़ा जाता है। य पशुधन के उन्नत नस्ल होने की भावना से छोड़ा जाता है। यही किशोर बछड़ा गोल्लर के रूप में मान्य होता है। वह किसी के भी खेत में चर सकता है। उसके चरने पर कोई प्रतिबंध नहीं। इसीलिए कि वह लोक में पूजित स्थान प्राप्त कर लेता है। उसे भोलेबाबा कहकर भी अभिहित किया जाता है। उसे शिववाहन अर्थात् नंदी की संज्ञा मिल जाती है। गांवों में कुछ लोग नांदिया बैला सजाकर विभिन्न करतब दिखाते हैं। नांदिया बैल की सजावट ही निराली होती है। पीठ पर कपड़ों की आकर्षक सजावट, सींगों में सलीकेदार मयूर पीक की कलगी, गले में घंटी और पैरों में घुंघरू उसे उत्कृष्ट और पूज्य बनाते हैं। ढोलकी की आवाज के बीच विभिन्न करतब दिखाता नांदिया बैल लोगों की श्रद्धा का पात्र इसलिए भी बनता है कि वह शिववाहन नंदी है। लोग श्रद्धापूर्वक उसके पेट के नीचे से अपने छोटे बच्चों को लेकर सुख समृद्धि और स्वस्थ जीवन की कामना से निकलते हैं। यहां भी बैल के प्रति लोक का आदर भाव ही दृष्टिगोचर होता है। श्रद्धा और आदर हो भी क्यों न, वह उसके जीवन का सहचर जो है। नांदिया का अस्तित्व तो अकेले में ही है, लेकिन बैल का अस्तित्व तो जोड़ी में है। नांदिया बैल में कृषक का बैल ही आरोपित है। इसीलिए पोला के दिन अकेले नांदिया बैला की पूजा नहीं होती, बल्कि उसकी जोड़ी भी रहती है। अर्थात् पोला में दो बैलों की पूजा का विधान है। इस दिन छग में व्यंजन के रूप में विशेष सामग्री 'ठेठरी' और 'खुरमी' बनाई जाती है। यहां भी शिव के प्रति लोक की आस्था प्रतिबिम्बित होती है। ठेठरी जिसकी आकृति जलहरी (प्रतीक रूप में पार्वती) और खुरमी शिवलिंग (शंकर) रूप में प्रतीत होती है। यह लोकआस्था का चरमोत्कर्ष है। जहां लोक के आचार-विचार, रहन-सहन और कर्म में पूजित देवता खानपान में भी आकार पाकर श्रद्धा के पात्र बनते हैं। यही ठेठरी, खुरमी अर्थात् (पार्वती व शिव) वो कपडे क़ा 'गोना' बनाकर नांदिया पर चढ़ाया जाता है। नांदिया (नंदी) पर शिव पार्वती ही तो सवार होंगे न। लोक का यह रूपक, लोक वा यह बिम्ब अन्यत्र शायद ही मिले। पूजा के बाद नांदिया बैलों में 'सीली' पहिया लगाकर बच्चों द्वारा दौड़ाया जाता है। इस समय बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। नांदिया बैलों के साथ पूजित जांता-पोरा, चूल्हा-चुकिया व मिट्टी के बने बर्तनों की खेल सामग्री से बच्चे विशेषकर लड़कियां 'सगा-पहुना' खेलकर बालपन में ही पारिवारिक जीवन की जिम्मदारी का अभिनय करती है।
पोला मूलत: कृषि संस्कृति से प्रेरित पर्व है इसलिए पोला के दिन र्'दईहान' में शाम को बैलदौड़ की प्रतियोगिता होती है। किसान अपनी बैलजोड़ी को आकर्षक ढंग से सजाकर प्रतियोगिता में शामिल करते हैं। दौड़ होती है और विजयी बैलजोड़ी के साथ कृषक को भी पुरस्कृत किया जाता है। इसी दिन शाम
को ही रंग-बिरंगे पोशाकों में सज-धज कर किशोरियां और महिलाएं 'पोरा' पटकने के लिए जाती हैं। गांव के बाहर महिलाएं एकत्रित होकर पोरा (घडे क़ा लघुरूप) फोड़ती हैं जिसमें ठेठरी व खुरमी होती हैं। गांव के बाहर या चौराहे पर जैसे मेला सा लगा रहता है। वातावरण में चारों तरफ गेंड़ीहारों की गेड़ी की आवाजें गूंजती हैं। रोहों पो पो रोहों पोपो। यह वही बांस की गेंड़ी है जिसे हरेली के दिन से बच्चे महीने भर मच मच कर गांव में खुशी और आनंद की बौछार करते हैं। आनंद और उमंग के इस माहौल में गीतों की वर्षा न हो भला ऐसा कभी हो सकता है? लोक तो गीतों का कुबेर हैं। जहां निसदिन लोक सम्पदा की खन-खन गीतों के रूप में फूट पड़ती है। महिलाओं का समूह हाथों से ताली देकर सुवा नृत्य में निमग् हो जाता है। लोक का यह करिश्माई प्रभाव हृदय के तारों को झंकृत देता है और गांवों में बरबस ही थिरकन पैदा हो जाती है। लोक नृत्य के समूह में शामिल ये हमारी वही बेटियां हैं, ये हमारी वही मांयें हैं जो तीजा मनाने मायके आई हैं या मायके जाने वाली हैं। ये वही बेटियां हैं, ये वही मांयें हैं, ये वही बहनें हैं जिनकी गर्भवती होने की खुशी में लोक ने 'सधौरी' खिलाकर संतान सुख की कामना की थी। जिसे आज हमने पोला पर्व में 'अन्न' के रूप में सम्मान व प्रतिष्ठा दी है। अन्न व बेटी-बहन तथा मां के प्रति सम्मान का यह लोकपर्व पोला लोक की पहचान का प्रतीक है। पोला छग लोक जीवन की सांस्कृतिक अस्मिता का पर्याय है। लोक जीवन की सुख समृद्धि का स्वर्णिम अध्याय है। शिव स्वरूप में कृषि संस्कृति लोक का अराध्य है।

कोई टिप्पणी नहीं:

पृष्ठ